नामजप कर रहे हैं फिर भी आत्मबोध क्यों नहीं हो रहा(Naap Jap Kar Rahe Hai Fir Bhi Atma Bodh Kyu Nahi Ho Raha) ekantik Vartalap & Darshan: एकांतिक वार्तालाप & दर्शन By Shri Premanand Ji Maharaj

Naap Jap Kar Rahe Hai Fir Bhi Atma Bodh Kyu Nahi Ho Raha: मुदित खरे जी श्री राम भोपाल से गुरुदेव आपके चरणों में सादर नमन गुरुदेव मैं एक साल से आपको नियमित सुन रहा हूं जिसके माध्यम से मन में जितने भी संच उसका निवारण हुआ है और जीवन में बहुत परिवर्तन भी आया गुरुदेव मैं गुरु प्रदत मंत्र व नाम जप का नियमित अभ्यास कर रहा हूं लेकिन साधना के स्तर से आत्मबोध नहीं हो रहा ऐसा प्रतीत होता है?

Pujya Shri Premanand Ji Maharaj: जब अभ्यास में अभी कमी है अच्छे साधन की यात्रा लंबी है आप कहते आत्मबोध अभ्यास से नहीं होता हमारी बात समझना आत्मबोध शब्द जो आपने कहा है वह अभ्यास से नहीं होता अभ्यास से सत क्रियाएं होती है और असत क्रियाओं का त्याग होता है और आत्म बोध के लिए समस्त चिंतन से रहित होने का अभ्यास किया जाता है

आप चिंतन का अभ्यास करें ना सत ना असत जब कोई चिंतन नहीं होता तो जो स्थिति होती है उसे आत्म बोध कहते हैं यह ज्ञान का पंथ कृपाण के धारा पर खस लगे नहीं बारा पर वही आत्म बोध हमारे प्रेम मार्ग में रास्ते में हो जाता है

जब हम प्रियालाल का चिंतन करते हैं और श्यामा श्याम के चरणारविंद की भक्ति करते हैं तो अपने आप बोध हो जाता है आत्म स्वरूप का बोध बड़े भाव में हो जाता है जैसे दास भाव सख्य भाव वात्सल्य भाव कांता भाव सहचर भाव ये कोई पांच भौतिक शरीर का नाम थोड़ी है हां स्थूल सूक्ष्म कारण इन तीनों शरीरों से राग रहित हुआ भाव देह को प्राप्त हुआ महापुरुष आत्म स्वरूप होता है

किशोरी महात्मानम की सुकुमारी मनु कले अपने को किशोरी स्वरूप देखकर श्री लाडली जू महाराज की नित्य सेवा में यह आत्म स्वरूप का अगर सहज में अनुभव करना चाहते हैं तो मम दर्शन फल परम अनूपा जीव पाव नि सहज स्वरूपा पर ज्ञान मार्ग से आप अगर सोचे तो फिर बहुत ही कठिन है

क्योंकि स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर कारण शरीर तीनों से अपने आप को जब अलग जो हैं ऐसा अनुभव होगा तब बात होगा आत्म स्वरूप का चिंतन किया नहीं जाता क्यों क्योंकि मैं चिंतन कर रहा हूं इसी में द्वैत भास रहा है और वह मैं है तत्व तो सब चिंतन छूट जाए फिर जो बचा उसे आत्म स्वरूप कहते हैं

Naap Jap Kar Rahe Hai Fir Bhi Atma Bodh Kyu Nahi Ho Raha

इसलिए हम हमें लगता है स्वरूपा अनुसंधान में भक्ति सर्वश्रेष्ठ है भक्ति रेव गरिष तो प्रियालाल का नाम जप करो और प्रिया लाल में सारी अहम ममता समर्पित कर दो सब ठीक हो जाएगा एक अहं ममता हमारी वाणी जी में एक अहम का ममता ये जग में है

दुखदाई ये जब श्री जी की ओर लगे तो होत परम सुखदाई तात मात सुत दार देह में मति अरु जय मति मंदा हित किशोर को है चकोर तु लक वृंदावन चंदा अब ये अता अहिता ममता समझ पा रहे हो क्या किसे कहते हैं अता ममता अता का मतलब जो भी क्रिया हो रही है

उसमें अहम का भाव मूल इसका देहा भिमान है इसी क्रियाए क्रियाएं तो इसके शाखाएं हैं लेकिन मूल जो आमताल है व अंतःकरण में जो अहम धर्म स् फुरित हो रहा है मैं पुरुष हूं मैं स्त्री हूं मूल ये मेरा स्वभाव मेरा मन मेरी बुद्धि यहां लगा हुआ है अहम आता और ममता जितने भी प्रिय पदार्थ हैं प्रिय शरीर है प्रिय संबंध है

इनमें अहम ता ममता अगर यह अहम और ममता दोनों समर्पित हो जाए प्रियालाल के चरणों में तो अभी परमानंद का अनुभव हो जाए पर यह समर्पित अपने बल से नहीं होता गुरुदेव मेरा यही प्रश्न था आगे कि ये संपूर्ण समर्पण की भावना कैसे उत्पन्न हो रसिक मंड उसी के आगे लिखा

महापुरुषों स रसिक मंडली में या तन को नीके ढंग लगाओ दंपति यस गाओ हर साओ हित सो रीज रिझाओ देवन को दुर्लभ य देही तने सहजी पाई मन भाई निधि पाई फिर क्यों जान बूझ बसराई हे उपासक तुझे मानव देह मिला है

बस श्यामा श्याम का गुण गा श्यामा श्याम का नित्य सच्चिदानंद सुख प्राप्त करने के लिए उनका नाम जप और उनके सिवा अपना किसी को मत मान जो चाहत है नित्य सुख अरु मन को विश्राम हित ध्रु हित सो भज तर रो पल पल श्यामा श्याम पल पल श्यामा श्याम अगर नित्य सुख चाहता है

नित्य स्वरूप में स्थित होना चाहता है परम विश्राम चाहता है तो अपनी जिव्या से रटना प्रारंभ कर दे श्यामा श्याम श्यामा श्याम श्यामा श्याम और जब हम किसी महापुरुष का आश्रय लेते हैं संत महापुरुष का तो हमारे अंदर एक भाव जागृत हो जाता है कि मेरे गुरुदेव की कृपा से से संत की कृपा से अब मेरे अंदर यह सद्भाव आ रहा है

यह सद साधन बन रहा है तो जो देहा भिमान कर्तव्य की कृपा में बह जाता है तिनकी संगति रहत जाति कुल मद सनन से नहीं तो चाहे जितना बड़ा साधन हो भैया अगर उसमें कर्ता भाव है

ना स्वरूप बोध होगा ना भगवत प्रेम होगा यह कर्ता भाव का अपरण भगवत प्रेमी महापुरुषों के द्वारा ही होता है जैसे साधारण बात में हम एकांत में अपने को बड़ा नंदी तपस्वी सब मानते हैं और जब प्रेमी जनों के समीप पहुंचते हैं तो जैसे हम एकांत में अपने को बड़ा सुंदर मानते पर दर्पण में जब देखते हैं तब हमें असलियत पता चलती है

तो जब प्रेमी महा भागव तों का संग होता है तो उनका संग दर्पण की तरह होता है तब अपने में कमियां महसूस होती है पूरे जीवन भर पूरे जीवन भर कोई कितना भी महापुरुष हो कभी भजन से कभी चिंतन से कभी लीला गायन से तृप्त नहीं हुआ यह है इस मार्ग की महिमा प्रेम प्रतिक्षण बढ़ रहा है

प्रतिक्षण वर्धनम प पनो याम नहीं ताते कबो न सेस प्रेम सदा बढ़ो करे जीव सस कला सुवेश प पोया मेंे नहीं भजनानंद महापुरुष कभी अपने में अनुभव नहीं कर पाया कि मैं भजना नंदी हूं सदैव यही बना रहा मैं कितना कोहम तुच्छ परम अधमा प्राण हो गर्भ कर्मा यतन नाम स्पति महिमा हरेश वृंदावन स्य हे वृंदावन धामी आपकी कृपा से राधा नाम जिव्या में हृदय में पर निरंतर चले और निरंतर डूबे हैं

पर याचना कर रहे हैं तन मन के बिछु नहीं चाह बढ़े दिन रैन कबहु संजोग न मान और देख भरी भरी नैन ये अद्भुत जब स्थिति ये रेमन रसिकन संग बिन रंच न उपज प्रेम जब प्रियालाल के प्रेमी जनों का संग होता है भगवत प्रेमी महात्माओं का तो उनकी कृपा से अहम गलित हो जाता है

क्योंकि जैसे हम अपने को को बहुत ऊंचा माने जब पहाड़ के नीचे गए तो फिर अपनी ऊंचाई समझ में आ गई ऐसे ही वो पहाड़ के समान भजनानंद है अपार अडिग विश्वास निरंतर प्रेम में डूबे और दैन्य मूर्ति जब उनके समीप पहुंचते तब लगता है कि हम में क्या है

हमारी क्या सामर्थ्य है ये तो केवल प्रियालाल की कृपा से या गुरुदेव की कृपा से हो रहा आहम जब तक रहेगा बच्चा तब तक ना स्वरूप बोध होता है ना भगवत प्रेम होता है अहंकार विमूव होता को पुष्ट रखता है अहंकार विमु आत्मा करता हमति मनते तो वो विमता नष्ट होती भगवत प्रेमी महात्माओं के संग से और भगवान की कृपा से जिनको सत्संग प्राप्त है

भगवत लीला कथा पठन श्रवण कथन इसका उसके हृदय में भाव है तो अहम गलित हो जाता है बिना महापुरुषों का संग के यह अहम बहुत पुष्ट होता रहता है सस्त वेदों का ज्ञान होने पर शास्त्रों का ज्ञान होने पर इस आहम पर कोई फर्क नहीं पड़ता यह जैसे बड़े-बड़े दिग्विजय ब्राह्मण जन हुए तो जैसे हरिराम व्यास जी थे वो पोथी लात के आए थे

यहां वृंदावन धाम य देखि कैसे हरिवंश महाप्रभु जैसे एक दिग्विजय कबीर दास जी के पास गए थे विजय प्राप्त यहां रूप जी के पास आए थे पूज्य रूप गोस्वामी के पास तो इसमें क्या होता है कि मैं विद्वान हूं शास्त्र ज्ञानी हूं यह है इसलिए असलियत में जो बोध होना चाहिए

वो नहीं हो तभी कबीर दास जी ने प्रश्न किया था कि आप पढ़ के समझे हो या समझ के पढ़े हो अगर समझ के पढ़ते तो और या पढ़ के समझते तो दोनों में एक स्थिति आती वो तत्काल अपने ज्ञान को अधूरा माना और उन्हें गुरु रूप से स्वीकार किया तो जैसे कल ही चर्चा हुई थी कि रहु गण बड़ा विद्वान है

कपिल भगवान से सत्संग करता कोई साधारण श्रोता भी नहीं है वो बहुत उच्च कोटि का जिज्ञासु है और जब भरत जी क्योंकि जिज्ञासु ना होता तो भरत जी जी महाराज को पहचान नहीं पाता जड़ भरत जी को जब भरत जी ने उपदेश किया

तब उन्होंने उसका साधन पूछा कि इस स्थिति का ब्रह्म बोध का साधन क्या है तो उन्होंने कहा रहु गणित त तपसा न याति नचे जया न निरूपण ग्रद वा न छंद सा नय जलाग सूर्य बिना महत् पाद रजो अभिषेकम जड़ भरत जी ने एक उपाय बताया महापुरुषों की चरण रज से अभिषिक्त होना वो चरण रज से अभिषिक्त होने का मतलब उनकी आज्ञा में अपने जीवन को समप करना तो समझ पा रहे हैं

आप अगर हमारे जीवन में किसी महापुरुष का आदर्श है कि हम उनके वचन के अनुसार तो आप चल पाएंगे आप वहां पहुंच जाएंगे और आपको य अनुभव प्रतिपल होना चाहिए कि मेरे गुरुदेव या संत भगवान की बड़ी कृपा है जो मेरे द्वारा सत् साधन कराया जा रहा है

मैं करता ले तो फिर अपने आप आगे आपको ना आत्म बोध पर कोई और ना प्रियालाल के मिलन की इसकी चिंता नहीं करनी अब आपको चिंतन करना है कि हमारा चिंतन असत ना होने पावे बस सारी बात है

अगर हमारे अंदर यह रहा कि नाम ना छूटने पावे प्रभु का चिंतन ना छूटने पावे तो सब अपने आप प्राप्त हो जाता है हम आपको सत्य कहते हैं आत्म बोध भी भगवत प्रेम भी सब कुछ प्राप्त हो जाता है ये भगवत प्रसाद से होता है

उपनिषदों में भी कहा गया नाय मात्मा प्रवचने लभ नमे धयान बहुना सुते बहुत बुद्धिमान हो बहुत प्रवचन कर लेते हो बहुत सुन लेते हो इसे आत्म बध थोड़ी हो जाएगा ऐसा निषद भी कहते हैं हां जब आत्म बुधवान किसी महापुरुष का आश्रय लिया जाता है और फिर उनके कथन अनुसार चला जाता है

तो अभिमान स्फूर्त होने का अवसर नहीं रहता और हमें वास्तविक अपने स्वरूप का बोध हो जाता है ना हमारा अंतःकरण है ना हमारा स्वभाव है ना स्थूल शरीर है आत्मबोध की तरफ ऐसे भक्ति की तरफ ना हमारा अधिकार स्थूल शरीर में है ना सूक्ष्म में और ना कारण में ये तीनों हमने प्रियालाल को समर्पित कर दिए बिक गए हम तन वांग मनो अमल सोहम त वासता तन अर्थात शरीर वाणी और मन और सोहम माने मैं स्वयं अपने श्यामा श्याम को बिक गया हूं

जैसे रूप लाल हित हाथ बकानी निधि पाई मेरा अधिकार नहीं रहा अब ये तो जो करवा रहे प्रिया प्रीतम अपनी कृपा से करवा रहे कहीं भी किंचन मात्र जहां ऐसा भाव होता है वहा पापा चरण नहीं होता ये ध्यान रखने का विषय है कि भगवान हमारे द्वारा करवा रहे हैं

जो करवा रहे हैं तो हम पापा चरण खूब कर रहे हैं कह रहे भगवान करवा रहे हैं ये दंब है ये पाखंड है ऐसा नहीं होता जब अहम श्यामा श्याम को श्री जी को समर्पित हो जाता है तो फिर कामनाएं किस आहम में होंगी कामनाएं शरीर अभिमान में होती है

Naap Jap Kar Rahe Hai Fir Bhi Atma Bodh Kyu Nahi Ho Raha

भगवत अभिमान में नहीं जैसे ये ठसक हो जाए हम से श्यामा जू केवल अभिमानी तो टेढ़े रहे मोहन रसिया सो अब उसके अंदर काम आ जाएगा जब मोहन रसिया से वो टेढ़े रहता है तो काम आ जाएगा क्रोध आ जाएगा इनकी सामर्थ्य कहां है

तो भगवत अभिमान में निर्विकार होता रह है और देहा भिमान में कभी निर्विकार रह ही नहीं सकती थोड़ा दब सकते हैं पर अवसर आने पर फिर ज्वाला हो जाएगी तरंग समुद्र बनने में देर नहीं लगती विकारों की तो ये किसी महापुरुष के वचनों का आश्रय लेकर उनकी आज्ञा के अनुसार उनकी कृपा से सत मार्ग में चलिए सब ठीक हो जाएगा हमें उत्ताना नहीं है

एक उता हट होती है ना अ जल्दी से आत्म बोध हो जाए जल्दी से शमाम मिल जाए नहीं हमें धैर्य पूर्वक भजन पर दृष्टि रखनी है असत क्रियाएं नहीं करूंगा असत चिंतन नहीं होने की चेष्टा करूंगा और सतत नाम जप करूंगा इस साधक को कुछ दुर्लभ नहीं रहेगा अगर उकता आओगे तो आपको लगेगा

अभी काम नहीं नष्ट हुआ अभी क्रोध नहीं नष्ट हुआ पता नहीं इस मंत्र में फल है कि नहीं राधा नाम में है कि नहीं ऐसा है अब हम किसी और से जुड़े क्या मतलब वो उसको धैर्य पूर्वक टिकने नहीं देगा इसलिए पातंजल जी ने कहा है दीर्घ काल निरंतर सत्कार सेवित दृढ़ भूमि दीर्घ काल तक निरंतर जो साधन मिला है

बिल्कुल आदर पूर्वक कि इससे बड़ा कोई सृष्टि में साधन नहीं इतना आदर होना चाहिए जैसे आज के सत्संग में चर्चा थी एक तरफ धन है एक तरफ श्री ठाकुर जी अब आप देखो आपको प्यारा कौन लगता है अगर धन प्यारा लगेगा तो भजन छूट जाएगा एक तरफ भोग है

एक तरफ श्री ठाकुर जी है भोग प्यारा लगेगा तो जबान से कहोगे कि भगवान प्यारे हैं पर आप भूल जाओगे भोग के समय भगवान का स्मरण भूल जाएगा इसका मतलब भोग प्यारा लगा एक तरफ शरीर है

एक तरफ प्रभु है विपत्ति अपमान और मृत्यु का अवसर आने पर यदि आपको भगवत विस्मरण हो गया तो आपने शरीर को प्रधान माना प्रभु को नहीं ये कसोटी है निर्माण मोहा जित संग दोषा अध्यात्म नित्या विवृत कामा ंदर विमुक्ताए गच्छ अमूढ़ा वो अमूढ़ पुरुष उस अव्य पद का अधिकारी हो जाता है

तो खूब नाम जप करो भगवत चरणारविंद की की प्रीति प्राप्त करने के लिए भगवत चरणारविंद के प्रेमियों की दास्ता स्वीकार ही करनी पड़ती है बिना इस दास्ता चाहे जिस मार्ग में चलो जैसे ज्ञान मार्ग में है अद्वैत निष्ठा होती है पर गुरु की भक्ति तो होती है ना गुरु साकार रूप में बैठा होता है

अगर उसकी मतलब आराधना नहीं हुई गुरु आज्ञा में नहीं तो किसी को बोध होने वाला नहीं बिना अ तो जैसे हम गुरु की आराधना करते कुछ लोग जैसे ठाकुर जी की प्रगट से सेवा का ज्ञान मार्ग के बल पर निषेध करना चाहते तो उनसे यह पूछते हैं कि तुम्हें उपदेश साकार से मिला है कि निराकार से ग्रंथ साकार है शब्द साकार है तुम्हारे गुरुदेव साकार है और तुम भी बर्ताव साकार में ही आकर कर रहे हो

श्रवण कथन साधन नि धसन जो भी कर रहे हो भैया सबका स्वरूप निराकार है जो आत्म स्वरूप है हम जैसा भाव करते हैं वो वैसे ही अनुभव में आता है अगर आपके अंदर कोई कोई भाव नहीं है तो वो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है हम लोग जो भगवत मार्ग के पथिक प्रेमी जन प्रियालाल के चरणों की दासता से बढ़कर कोई सुख नहीं है

इसलिए वेणु कानन कुण सवन सुंदर सुनत मुक्ति सम सकल सुख पाए पग पेल री पग पेल री अब उसको बहुत शास्त्री शब्दों में कह रहे तो पग पेल री नहीं तो ये है कि पैर से ठुकरा देने की मोक्ष सुख को पैर से ठुकरा दे ऐसा हमारी लाड़ली लाल के प्रेम का सुख है उनकी दासता का सुख है

इसलिए बहुत सावधानी से चलो नाम जप करो असत क्रियाए ना होने पाए और नाम पर ध्यान रखे निरंतर सब बात बन जाए गुरुदेव प्रथम बार वृंदावन आगमन हुआ है ऐसा लगता है कि आपकी कृपा से ही हुआ है

मेरी लाड़ली की कृपा से हां जिनको वृंदा विपिन कृपा तिल की होए उनकी कृपा की बलाया तो आग कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जो आपको बिना सुने जाए तो प्रयास पूरा रहता है कि आपके वचनों पर चलूं अब पता नहीं कितना हो पाता है अ दो चीजें बिल्डिंग में होती है

जब ऊंचाई पर चढ़ना हो एक होती सीढ़ी एक होती लिफ्ट समझ रहे हो ना सीढ़ी में चढ़ने से फिसलने का डर है और थकान भी है और लिफ्ट में बैठ गए और बटन दबा दी तो जिस फ्लोर में जाना उसी में खुल जाएगा ना यह जो भक्ति का आखिरी स्वरूप है

भक्ति आत्म समर्पण यह लिफ्ट में बैठ जाना होता है श्रवण कीर्तनम स्मरणम विष्णु पाद सेवन अर्चन वंदनम दास सख्य यहां तक तो सीढ़ी है जो इसका फल आता है वह आत्म समर्पण अब यह लिफ्ट में बैठ गया उपासक तो अभी करो करना ही पड़ेगा क्योंकि करने का वेग है

जब वह करते करते वेग हार जाता है तब उसे लिफ्ट मिलती है कृपा और कृपा लिफ्ट में जहां बैठा तो ब सीधे उसी फ्लोर में खुलता जाहा श्यामा श्यामी हा जो कचो सब तिहारी कृपा से बिहारी बिहारी उसी यही यही कहा कि भगवत प्रेमी महात्मा की कृपा जो होती ना वो लिफ्ट का काम करती है अच्छा लिफ्ट में बैठे अगर नंबर ना देखो तो आपको पता ही नहीं चलेगा चल रहे किले चल रहे ऐसा भी लगता है

जो बड़ी रफ्तार से चलती है ना और जब नंबर देखो तब लगा चौथा पांचवा छवा आठवा ये क्रास होता चला जा रहा है ऐसे ही लिफ्ट में बैठे उपासक को यह पता नहीं चलता मैं कितनी ऊंचाई पर पहुंच गया और जहां खुला फ्लोर फिर देखा कि ओहो तब वो रोता है

प्रिया प्रीतम के लिए नहीं उन रसिक महाप्रभु की कृपा के लिए कि अगर गुरुदेव आप कृपा न करते तो मुझ अधम यहां पहुंच नहीं सकती जहां संभाव प रंच नारद शिव स्वयं भुवाद नय जिन हमारे लाड़ली लाल की नित्य प्रेम रस लीला में इन महापुरुषों की संभावना नहीं है

ना देव ब्रह्मा न खल हरि भक्त न सुदा दिवि यदव राधा मधुपति रास सुदित तयो दासी भूत्वा तदुपरांत प्रत्याशा हर हर दशर गोचरी तुम हाय मेरी कितनी दुरंत आशा है कि मैं जो इन बड़े बड़ों के लिए दुर्लभ है वह मैं प्राप्त करना चाहता हूं बोले ये मेरे लिए दुर्लभ नहीं क्यों बोले सचर स्वरूप आचार्य आए हैं

मुझे लेने के लिए जो हमें उपासना दी है जो हमें मार्ग दिया है ये हम लिफ्ट में बैठ गए आचार्य कृपा लिफ्ट है तो उसी कृपा में आप बैठ जाइए तो आपको यह जो भय है कि कहीं गिर ना पडू अब गिरने का भय नहीं रहेगा पर ये अंदर की बात है

संपूर्ण अंदर से आत्म समर्पण जब प्रभु को हो जाता है तो हम आपको सच्ची कहते हैं ऐसे चलाते हैं प्रभु जैसे छोटे बच्चे को मां चलना सिखाती है ना तो छोड़ तो देती है लेकिन वो ऐसे रखती है कि कहीं गिरा तो उस के कर कमल में है तो अभद भुज दंड मूल पीन अंस सानुक श्री हमारे लालजी महाराज के अभ अभय भुजाएं हैं वो ऐसे ऐसे करते रहते हैं

क्योंकि प्यारी जू के चरणारविंद का शरणागत कभी ऐसा नहीं पाया गया एक शब्द श्री पात प्र बुधानंद जी ने लिखा है कि भगवान के मोहिनी अवतार में भी सामर्थ्य नहीं कि गोरे चरणारविंद की ठसक रखने वाले को मोहित कर सके हमारी जो किशोरी ज का तो अगर कोई भी इधर से प्रवचन या सत्संग सुनेगा इधर का तो उसमें विश्राम वही होगा श्री राधा जुग चरण निवास क्यों क्योंकि लाल जू महाराज कभी कभी गुस्सा भी हो जाते हैं इतनी कृपा की इतनी दया की और यह जीव अपनी मानता नहीं मन मानी आचरण करता है

तो फिर तिनका काल रूप में भ्राता पर अगर हम लाडली जी की शरण में न देव ब्रह्मा देन खल हरि भक्त शदा दव राधा मधुपति रास सुविध दम यहां जो हमारी प्यारी ज के चरणों का आश्रय लेने गए कि लाल जू महाराज अगर तनिक भी क्रोधित हो जाते हैं

उस उपासक के आचरण को देख कर के तो लाडली जो हमें बचाते हैं हम आपको बताए लाडली जोसे जहां देखा निरत भृकुटि आसक्त लाल अलि लंपट बस कीने बिन मूलन इसकी व्याख्या इसलिए नहीं करेंगे इसका अधिकार चाहिए तो लाडली जो चितवन करी त लाल जू ने तत्काल पास कर दिया अब ध्रुव दस जी उसका प्रमाण दे रहे हैं

यद्यपि भक्त अनन्य जो विषय इंद्रिय बस होय कर्मठ कोटि जितेंद्रिय ते सम लायन कोय करोड़ों जितेंद्रिय कर्मकांडी उसकी बराबरी नहीं कर सकते क्योंकि लाली जू के चरणों का आश्रय ले लिया यद्यपि उसमें अभी विषय प्रधानता है अभी इंद्रियां फिसल जाती है पर उसकी समानता नहीं कर सकता क्योंकि उस लाडली जू का अनन्य हो चुका है

अब कुछ ही समय बाद उसके अंदर स्फना भी बंद हो जाएगी कामा आदि दोषों की तो हम प्रिया जू के चरणारविंद का आश्रय लेकर खूब राधा नाम जप करें तो लाडली जू का नाम जानते हो क्या अलबेली सरकार वो हमारे अपराधों को नहीं देखते सहज स्वभाव पर नवल किशोरी ज को मृदु होता दयालुता कृपाल होता की रासि है और ने कहु न रिस कहू भूली ल होत सखी रहत प्रसन्न सदा ही मुखा ऐसी सुकुमारी और प्यारे लाल जू की प्राण प्यारी और धन्य धन्य धन्य तेई ये इनके उपास है

वो धन्य हो गया जो हमारी लाडली जो महारानी जी का सर्वेश्वरी राश शवरी उनका आश्रय ले लिया सही पूछो तो हम लोगों से गलतियां होंगी ही अगर हम कसम खाके भी कहे आज से गलती नहीं करेंगे तो देखो मन है

हमारा जब तक यह निज रस प्राप्त नहीं करेगा तब तक ये हमें भटका जाएगा तो हमको एक ऐसा सहारा चाहिए जो हमको दुलार करके संभाल सके केवल डांट से ही काम नहीं चलेगा डांट से काम चलेगा तो निराशा आ जाएगी ना हर बार डांटे डांट मिले तो निराशा नहीं आ जाएगी

तो हमको दुलार भी मिले तो हमको तो ऐसा महादेव जी की कृपा से कि इतना क्षमा और दुलार केवल लाड़ली जू में पाया गया बहुत करुणामय बहुत करुणामय हमारी लाडली जो बहुत करुणामय इसलिए हम सबसे कहते हैं कि हम किसी संप्रदाय की बात नहीं कहते छाती की बात कहते राधा राधा राधा राधा स्वयं हरि जपते हैं

एकांतिक बात कह रहे हैं स्वयं हरि रसना राधा राधा र जपत हरि विवस तव नाम प्रतिप विमल मनस्त ध्यान ते निमस नहीं रिव जिनका ध्यान स्वयं भगवान शकर सण काद ब्रह्मादेवी मभ दोहा वो प्रभु हमारी लाडली का ध्यान करते राधा राधा राधा मान जाओ राधा राधा राधा और श्री जी के चरणों की ठसक और फिर आप देखना कौन घसीट सकता है

आपको बिगाड़ नहीं सकता क्योंकि लाडली जू के हम पक्ष में तो लाल जू महाराज हम पर विशेष कृपा करेंगे हां राधा राधा बोलने वाले कि पीछे पीछे लाल जू डोलते पक्की बात जपते रहो फिर आपको सुनाई देंगे नूपुर की ध्वनि पीछे मुड़ के देखना तो जहां लाल जू वही लाडली जू जहां लाडली जू लाल जू एक छड़ के लिए भी दोनों अलग नहीं होते ठीक है और मस्त रहो मनुष्य जीवन हर समस्याओं को सहने के लिए मिला है मिटाने की बात नहीं सोचना मिटाना तो अता ममता दुख सुख को सह जाओ मान अपमान को सह जाओ और भगवत प्राप्त हो जाओ प्रियालाल को प्राप्त|

Why are you not attaining self-realization even though you are chanting?

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