Shri Neh Nagridas Ji Ka Bhakt Charitra: नेही नागरी दास अती जानत नेह की रीति दिन दुल राई लाडली लाल रंगीली प्रीति दिन दुलरा लाडली लाल रंगीली प्रीति व्यास नंद पद कमस जाकेण विश्वास जही प्रताप यह रस कयो अरु वृंदावन वास जही प्रताप यह रस कयो अरु वृंदावन वास भली भाति सेयो विपिन तजी बंधनी सो हे सूर भजन में एक रस सूर भजन में एक रस नयो नान खेत सूर भजन में एक रस छाण नाही खे भजन पहुंच की कठिन खरी है|
श्री नागरी दस जी महाराज महान वैराग्य सिंहासन पर विराजमान प्रेम रस का रस आस्वादन किए हुए महापुरुष है एक ही लंगोटी शरीर पर रहती थी दूसरा वस्त्र कई कई दिन तक चतुराश्रम लीलाओं में पदों का चिंतन करते हुए डूबे रहते भिक्षा की भी शुद्धि नहीं रहती तो प्यारी जो एक दिन स्वयं पधारी नागरी दस जी को सुंदर अपना उ चिटा मृत दिया और कहा मुझे अच्छा नहीं लगता कोई ब्रज चौरासी कोष में भूखा रहे अच्छा नहीं लगता ठीक है|
तुम वैराग्य पूर्वक भजन करते हो लीलाओं का चिंतन करते हो लेकिन भिक्षा मांगो माधु कररी वृति से रहो भूखे मत रहो मुझे अच्छा नहीं लगता हमारी श्री जी स्वयं नागरी दस जी को अपने कर कमल से उच्छिष्ट दिया और आज्ञा करी कि यहां भूखे मत रहो ब्रज चौरासी कोष में कोई भूखा रहे मुझे अच्छा नहीं लगता मादुक वृत्ति से अपने उदर का पोषण करो ब वा सियों के घर से जाओ टूक मांग कर लाओ श्री जी ने स्वयं आदेश किया|
पहले वृंदावन ही वास करते थे नागरी दस जी एक घटना घटी जिससे बरसाना वास की लीला बन गई राष् मंडल पर श्रीमद् भागवत की चर्चा हो रही थी बड़ा रास मंडल और पूज्य जन चर्चा कर रहे थे प्रसंग चल रहा था धेनुका शर वध का लाल जुग के महाराज अपने ब्रजमंडल की रक्षा के लिए कैथ के वृक्ष में जो गधा बना हुआ धेनुका सुर था|
उसका पैर पकड़कर प्रहार किया तो जब वह यह चर्चा कर रहे थे कि लाल जू के कर कमल में धेनुका सुर जो गधे रूप में था उसका पैर लाल जू अपने हाथ में पकड़े हुए थे उस समय नागरी दस जी का चिंतन चल रहा था हरि उर मुकुर बिलोक अपन को विभ्रम विकल मान जत भोरी तो चिबुक सुचारु प्रलोभन पी प्रतिबिंब जनाए नि होरी य आज निकुंज मंज में खेलत नवल किशोर नवीन किशोरी इस पद का चिंतन कर रहे थे और यह लीला चल रही थी कि लाल जू शी लाडली जू के चिबुक को दुलार करते क प्यारी जू ये और कोई नहीं जो आप हमारे वक्षा स्थल में प्रतिबिंब देख रहे|
ये आपका ही है हरि उर मुकुर बिलोक अपन विभ्रम विकल मान जुत भोरी तो लालजी महाराज चिबुक सुचारु प्रलोभन प्यारी जू के चिबुक पर कर कमल रखे हुए वहा गद का धेनुका सुर का चरण ऐसा तो लीला तो व भी है पर ये इतने महा माधुर्य रस में कि मूर्छित हो गए सुनकर अब अचानक कोई मूर्छित हो जाए और बड़े जनों में कथा कह रहे थे तो उन्होंने कहा ये क्या हुआ कथा में भंग पड़ गया ना सब अचानक नागरी दस जी को चेतना जल आदि के द्वारा दिलाई गई और कहा क्या हो गया था कुछ नहीं ऐसे ही मूर्छा गई थी तो उन्होंने कहा तुम्हें हमारी शपथ सत्य बोलना पड़ेगा|
बोले सत्य बोलेंगे तो फिर महाराज कहीं नाराज नाना हो जाओ आप वर्णन कर रहे थे कि लाल जुग के कर कमल में धेनुका सुर उस समय हमारी लीला चिंतन चल रही थी कि लाडली जो के चिबुक को प्र तो ऐसे सुकोमल लाल जो अति सुकुमारी लाडली पी किशोर सुकुमार उनके कर कमल में गधे का हाथ ये हमारे सुनने की क्षमता नहीं हम ये बर्दाश्त नहीं कर सकते इसलिए मूर्छित हो गए कहां प्यारी जू का सुंदर मृद चिबुक प्रल रहे और कहां धेनुका सुर गधे का पैर हाथ में लिए ये बड़े जनों को अच्छा नहीं लगा|
तुम तो अपनी बड़ी ऊंची स्थिति कह रहे हो भाई विरोध शुरू हो गया सत्य पर चलने पर उसका परिणाम विरोध होता है जब बड़े जनों के द्वारा विरोध हुआ तो फिर श्री जी की इच्छा समझकर बरसाने चले गए और बरसाने में समाधि बनी है जब आप प्रदक्षिणा करते हुए जाए तो श्री जी के बगीचे में ही समाधि बनी हुई ऊपर ही नागरी दस जी बरसाने में गह मन में रहकर श्री स्वामिनी जी का निरंतर भजन करते हैं वह कह रहे हैं भजन पहुंच की कठिन खरी है|
भजन बहुत कठिन है करना एक पद में कहा जहां लिखा है खरोई तो वहा महाप ने कहा बड़ो ई बड़ो ई कठिन है भजन ढिग ढर बो भजन के समीप मन को पहुंचाना बड़ा कठिन है विषयों के समीप तो सबका मन स्वाभाविक जाता है जैसे पानी को कहीं भी छोड़ो नीचे ही जाएगा ऐसे मन और इंद्रियों को कहीं भी छोड़ो वो विषयों में जाएगा भोगों में जाएगा|
अगर पानी को ऊपर चढ़ाना है तो यंत्र की जरूरत पड़ेगी ऐसे ही मन को यदि प्रियालाल में लगाना है तो मंत्र की जरूरत पड़ेगी बिना मंत्र के मन प्रियालाल के दासी भाव शचर भाव को या भाव देह को नहीं प्राप्त होता है तो क बड़ो ही कठिन है भजन ढग ढर भजन के समीप मन को लगाना बहुत कठिन है बोले इसमें इतना आवेश चाहिए तमक सिंदूर मेल माथे पर साहस सिद्ध सती को सो जरीब साहस सिद्ध सती को सो जरीब बड़ो ही कठिन है|
भजन अर्थात प्राणों की परवाह ना करके तन की परवाह ना करके जैसे पाति व धर्म में उस समय जो आज के 500 वर्ष पहले स्थित देवी होती थी वह जहां सुनती मेरे पति का शरीर पूरा हुआ तो सिंदूर माथे पर धारण करके पति को गोद में लेकर सदे पति लोक को जाती थी शरीर को अग्नि में स्थापित करके बोले ऐसा समर्पण चाहिए भजन के लिए अपने प्रभु के लिए तन मन सर्वस्व निछावर करने वाला ही भजन कर सकता है|
रण के चाय घायल जो घूमे मुरेन गरूर सूर को सोलरी बो बड़ो ही कठिन है भजन िक धरि बो पूज्य श्री नागरी दास जी कहते हैं जैसे युद्ध में शूरवीर का एक हाथ कट गया तो दूसरे हाथ से दुश्मन को काटने के लिए आगे बढ़ेगा अगर उसका वह भी हाथ कट गया तो पैर से मारने की कोशिश करेगा पैर भी काट दिया जाए तो हर कोशिश करेगा कि किसी भी तरह शत्रु को परास्त कर दू बोले रण के चाय घायल ज घूमे मुरे न गरूर सूर को सोलरी वो हर जगह परास्त हो रहा है|
लेकिन साधक की कोशिश है मैं इसी जन्म में भगवत प्राप्ति करूंगा हरा के देख लो मैं अविनाशी का बच्चा हूं कितनी बार हारू लेकिन जीतूंगा काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर सबकी धज्जिया उड़ाऊ ऐसा शूरवीर चाहिए कि जैसे अंग कट जाने पर भी युद्ध भूमि में पीठ नहीं दिखाता ऐसे ही कितनी बार भी कैसी भी परिस्थिति आवे अनुकूल प्रतिकूल मान अपमान निंदा स्थिति इसकी कोई परवाह ना करके भगवत प्राप्ति के लिए भजन में डटा रहे बड़ो ही कठिन है|
भजन धग धरि बो नागरी दस सुगम जिन जानो श्री हरिवंश पंथ पग धरि बो बड़ो ही कठिन है भजन बोले खिलवाड़ मत समझना ये जो प्रियालाल के प्रेम मार्ग में कदम रखना चढ़ के मैन तुरंग पर चली वो पावक माई प्रेम पंथ अति कठिन है सबको निवत नाई नागरी दास जी कह रहे हैं सावधान मति रति सो चलन हर क्षण सावधान रहना बहुत बड़े-बड़े ठग लगे हैं पग धरी गाढ़ी प्रेम गरी है इस प्रेम गली में बहुत संभाल के पग रखना मजबूत पग रखना चाहे जितना झंझावात आ जाए पग तुम्हारे पीछे ना हटने पावे चाहे काम चाहे क्रोध चाहे अपमान चाहे निंदा चाहे रोग चाहे मृत्यु ही क्यों ना आ जाए|
अब कदम जहां रख दिए वहां से पीछे नहीं हटेंगे ऐसा शूरवीर चाहिए भजनानंद बोले भजन पहुंच की कठिन खरी है दशा समेट धरे ढंग यही यही टूट प्रकृति बिगरी है बोले अपनी दशा को समेट सांसारिक दशा में मत आओ तुम भागवत महापुरुष हो अपनी इंद्रिय और मन को समेट करके प्रियालाल के चरणों में लगा दो अगर ऐसा नहीं किया तो कह रहे यही टोट प्रकृति बिगरी है यही तुम्हारी जो कमजोरी है|
यही जो अंदर की विषय लोलुपता है यही तुम्हें सहचर भाव नहीं जागृत होने दो रहा यही प्रिया प्रीतम की प्राप्ति नहीं होनी कमजोर मत बनो अपनी दशा को मजबूत करो जीवित मर जाए उलट आप में समा यह दिलगिरी मरना पसंद है गलत काम नहीं मरना पसंद है प्रिया प्रीतम के विमुख आचरण नहीं तो कह रहे पहुंच की कठिन खरी है भजन के मार्ग में पहुंच होना इसीलिए कर क्योंकि हम कमजोर हो गए हैं|
श्री गुरु प्रसाद वस्तु सो जोरे रही संभार में मन भगरी है बोले कैसे कमजोरी जाएगी बोले गुरु प्रसाद से गुरु कृपा से गुरु चरणों में चित्त को जोड़ दे अपने चित्त का ध्यान गुरु चरणों में रहे उनकी आज्ञा में रहे बोले मन जो है गुरु चरणों से भागता है गुरु आज्ञा से भागता है बोले यही बिगाड़ देता है भजन मार्ग को श्री रसिक नृपति के पाछे लागे सुखद भक्ति सद संपति धरी है रसिक नरपत श्री हरिवंश ज उनके पीछे जो गुरुदेव रसिक जन है|
बोले उनके पीछे लगे आगे संपत्ति धरी हुई मिलेगी तुम्हें कमानी नहीं पड़ेगी क्योंकि क बच्चा के पेट और घर घट करे विनाश तुम बच्चा बन गए हो रसिंक तो तुम्हें प्रिया प्रीतम निश्चित मिलेंगे और न बल बित नागरी दस श्री व्यास सुवन जो निधि सगरी है इस मार्ग में और कोई बल नहीं है आचार्य कृपा हरिवंश कृपा इष्ट कृपा गुरु कृपा ये सब एक ही कही जाती है बोले इसी कृपा बल से साधक प्रिया प्रीतम को प्राप्त करता है|
नागरी दस जी मूर्तिमान वैराग्य रूपी सिंहासन पर विराजमान अनुराग रस का रसास्वादन किए हुए महापुरुष तो इन महापुरुषों की कृपा से ही हमें आचार्य और गुरु निष्ठा प्राप्त होती है आचार्य और गुरु निष्ठा से ही हमें यह दुर्लभ प्रियालाल के चरणों का प्रेम प्राप्त होता है नागरी दस जी ने कहा है कि समस्त इंद्रियों को अंतर्मुखी राख को भी उड़ा दे वो जीवन मुक्त प्रेमी परमहंस मतलब चिन्ह भी ना रह जाए भोग वासना का भोग वासना की तो बात जाने दो समस्त इंद्रियों को अत मुख करके उनकी वासना को भस्म करके उसके राख को भीज उड़ा दे|
अर्थात त्याग और त्याग की वृत्ति का भी त्याग और प्रिया प्रीतम के अनुराग में ध्यान ही नहीं है ना अपने देह का ना रात का ना दिन का बढ़े हो आनंद मोद सबके महा प्रेम सुरंग रंगी औरन कछु सुहाय तिनको जुगल सेवा सुख पगी निस देस जानत नाही सजनी एक रस भीज यह हुआ कि इंद्रियों के विषयों को को भस्म करके उनके राख को भी उड़ा दिया अर्थात दिन है कि रात है सब पता नहीं रात दिन प्रिया प्रीतम में इतना डूबे कब दिन गया कब रात गई कौन वार कौन नक्षत्र कौन ग्रह कौन व्रत कौन सब स्मृति के बाहर हो गया स्मृति में केवल श्यामा श्याम ऐसी स्थिति रसिंक होती है|
तो ऐसे परमहंस में शिरोमणी श्री नागरी दास जी कृपा करें और हम सबका मन जहां उनका मन लगा है वहीं पहुंचाए प्रिया प्रीतम के चरणों में मन पहुंचाए इन्हीं सब रसिंक से ही प्रियालाल की कृपा का परिचय मिलता है कहो कृपा उपजे के भाती तो रसिकन संग फिरे दिन राती तो रात दिन हमारा मन इन रसिय दिन रात इनकी कृपा का अवलोकन है|